दीया
आरती का हो या अर्थी का
दोनों
अन्धेरा छाँटते हैं
उजाला बाँटते हैं
लेकिन विनम्रता देखिये दोनों की
न तो कोई किसी पे हँसता है
न ही कोई व्यंग्य कसता है
न कोई वाद करते हैं, न ही विवाद करते हैं
दीये बस रौशनी का जहाँ आबाद करते हैं
इनमें शायद हीरो बनने का कोई
झगड़ा नहीं है
इसीलिए दीयागीरी में TRP का
लफड़ा नहीं है
बस काम करते हैं अपना अपना
आखरी दम तक
खपा देते हैं ख़ुद को............
बे-गरज़
ये बेजान दीये
कभी
आरजू - ए - इनाम नहीं करते
जबकि हम जानदार
आलम फ़ाज़ल
इन्सान
बिना गरज़ के
कभी कोई भी काम नहीं करते
__________कदाचित इसीलिए
हमें बार बार मरने को
बार बार ज़िन्दा होना पड़ता है
छोटी छोटी दुनियावी बातों पर
बारहा शर्मिन्दा होना पड़ता है
मुझे भी भ्रम है कि मैं
अपने फ़न-ओ-हुनर से
उजाला बांटता हूँ
जबकि सच तो ये है कि
अपने वजूद के लिए
औरों को काटता हूँ
छि: शर्म आती है अपनी ही सोच पर
इन्सानियत को खा गया हूँ नोच कर
काश ! मैं भी दीया होता......
आरती का न सही
अर्थी का ही सही.........................
- अलबेला खत्री
चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स की ओर से अलबेला खत्री को सम्मानित करते हुए सूरत पीपल्स बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष श्री बोडा वाला |
जय हिन्द !
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अलबेला खत्री आपका अभिनन्दन करता है